वैसे तो मैं उस टाकीज़ में कोई सौ एक मर्तबा फ़िल्म देख चुका हूँ !! नहीं ऐसा नहीं है की मुझे यहाँ की सीट , पंखे , पर्दा , विडीओ क्वॉलिटी या इंटर्वल के ठण्डे समोसे पसंद है या सीट के नीचे पड़ी पव्वे-कोल्डड्रिंक की ख़ाली बॉटले , सिगरेट के अधजले-बुझे ख़ाली ठुड्डे या कमला-पसंद ,विमल या पानबहार के रेपर या उसकी पीक की ख़ुशबू पसंद है । चूँकि ये मेरे शहर का एक मात्र टाकीज़ है इसलिए ये बात तो ज़ाहिर हो गयी की क्यों मैंने इस टाकीज़ में इतनी फ़िल्में देखी है । हालाँकि कुछ नहीं होने से ये होना काफ़ी बेहतर है और छोटे शहर में होने के कारण ठीक भी है , ख़ैर अब तो उसी नाम से एक नया थीएटर बन चूँका है जिसकी ख़राब बात यह है की वहाँ ऊपर लिखी कोई भी सुविधा नहीं है...
मुद्दतों पूछने-मनाने ,तर्क-वितर्क करने और ज़िद के बाद वो आयी थी साथ फ़िल्म देखने । उसे डर इस बात का था की वहाँ कोई उसे मेरे साथ ना देख ले पहचान ना ले वरना हमारे नाम की हवा उड़ जायगी... और मुझे इस बात का था की कही वहाँ पड़ा हुआ 'बड़ी गोल्ड फ़्लेक' का फ़िल्टर मुझे ना पहचान ले 'अबे परसों ही तो आया था तू , यही छोड़ कर चले गया मुझे... और हँसते हुए अरे भाभी नमस्ते ना बोल दे '
उस दिन मैंने सवा दो घंटो में एक बार भी ऊपर चलते पंखे नहीं देखे , आगे कौन बैठा है नहीं झाँका , परदे पर पड़ने वाली पीछे से आती लाइट नहीं देखी , पास वाले लड़के ने आगे वाली सीट पर हवा में रखे दोनो पैर नहीं देखे , उस दिन बीच-बीच में आनी वाली गंदी कमेंट से मैं ग़ुस्सा नहीं हुआ और अच्छी कमेंट पर हँसा भी नहीं , पीछे बैठे बच्चे की लगातार बातों से डिस्टर्ब नहीं हुआ और सीट के फटे हुए फ़ोम से निकली हुई स्प्रिंग भी ज़रा नहीं चुभीं...उस दिन फ़िल्म कौन सी लगी थी ये भी नहीं याद मुझे..
हाँ !! मुझे याद है अच्छे से परदे पर गड़ी तुम्हारी दो चमचमाती आँखे जो काफ़ी देर देर में झपक रही थी। मुस्कुरा रही थी वो आँखे , हाँ पता है होंठ मुस्कुराते है लेकिन तब शायद आँखे मुस्कुरा रही थी ।
मुझे याद है कैसे तुम एकटक देख रही थी । तुम्हारा वो थोड़ा सा खुला मुँह , वो 'Burnt Sienna' कलर की लिप्स्टिक और दोनो होंठ के बीच के ये नाममात्र की दूरी... तड़प रहे हो मानो एक दूसरे से मिलने को...
मुझे याद है अच्छे से उसका वो एक कान जो मेरी तरफ़ था , जिसके पीछे वो उसकी आवारा लटों को क़ैद कर रही थी , थोड़ी देर में ही फिर वो आवारा लट गिरफ़्त से छूट जाती और लहरा के आ जाती उसके गालों तक... और मुझे चिढ़ाकर कहती 'ऐ लड़के ! देख में इसके गालों के कितने क़रीब हूँ , छूँ रही हूँ इसको , तू भी आ ,है हिम्मत?'
मुझे याद है तुम्हारा वो चेहरा जो पड़ने वाली हर अलग रंग की रोशनी में अलग लग रहा था , जो फ़िल्म में चलने वाले सीन के मुताबित अपने इक्स्प्रेशन बदल रहा था , कुछ देर उसी चेहरे को अगर लगातार देख लूँ तो लग रहा था कि कही डूब ना जाऊँ मैं... फिर सब धीरे से ग़ायब हो जाता ये आसपास बैठे हुए लोग , ये सीट , ये बालकनी , ये स्पीकर , ये दीवार और ये पर्दा भी... लगता की तुम और मैं अकेले हो...एक़दम अकेले इस टाकिज़ में... और कोई नहीं हो...
फिर मेरे ध्यान को तोड़ते हुए कोई गाना आ जाता और गाने की आवाज़ तेज़ हो जाती और मुझे 'मजबूरन' फ़िल्म देखना पड़ती.. लेकिन मैंने उस दिन फ़िल्म पूरी देखी , क़सम से.. तुम्हारे चेहरे पर 🙈
-शुभम साठे 'चिनॉय'