अनु रॉय की कलम से

तेरे पापा और भाई भी तो हैं तेरे फ़्रेंडलिस्ट में फिर तू पीरियड, सेक्स, पैड्स और न जाने क्या-क्या लिखती रहती है अपने वॉल पर, तुझे अनकंफर्टेबल नहीं लगता.?
ये सवाल मुझसे एक नहीं कई जान-पहचान वाले महिला-मित्रों ने पहले भी पूछा था। आज बातचीत के दौरान फिर किसी ने यही ज़िक्र छेड़ दिया। जिसने जिक्र किया वो खुद को बहुत ही 'ओपन-माइंडेड, मॉडर्न और काफी अप-टू-डेट' समझतीं हैं।
ख़ैर, वो खुद को जो भी समझतीं हैं, मुझे उस से कुछ ख़ास दिक्कत नहीं है। कह सकते हैं, थोड़ी-बहुत तकलीफ़ उनकी इस सोच से जरूर है। मगर वो और उनकी जैसी तमाम महिलायें जो ऐसा सोचती हैं, उनमें उनका क़सूर न के बराबर है। क्योंकि हमारे यहाँ लड़की के पैदा होते से बड़े होने तक, उनकी ग्रन्थि में शर्म-लिहाज़ के नाम पर, इस कुंठा को प्रत्यारोपित किया जाता है।
इसकी शुरुआत प्यूबर्टी के आने से ही हो जाती है। जैसे ही शरीर में हलके-फुल्के बदलाव होने लगते हैं, तो माँ, चाची, दादी और बाकि के भी सगे-सम्बन्धी ज्ञान बाँटने का मौका नहीं छोड़ते। लड़की हो तो झुक कर चलो, यूँ सीना उभार कर लड़के चलते हैं। अब ज़रा बाप-भाई के सामने ढंग से आया करो। हो सके तो लूज़ कपड़े पहनों और न जाने क्या-क्या।
फिर दूसरा अहम पड़ाव होता है किसी भी लड़की के लिए, 'मासिक-धर्म यानि पीरियड' का शुरू होना और नहीं समझ पायीं हूँ मैं आज तक कि, इसे सब से छुपाना इतना जरुरी क्यों होता है। किसी और की बात क्यों करूँ, आज अपनी ही बात करती हूँ।

सबकी तरह जब पहली बार मुझे भी पीरियड आया तो, न कुछ पता था और नहीं कोई आइडिया की ये क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है। डरना स्वाभाविक था। अम्मा से भी नहीं कह पायी थी। दर्द, डर, घुटन सब एक साथ और समझाने वाला कोई नहीं। अम्मा ने जब देखा तो, उनको जो जरुरी लगा वो किया, मगर बिठा कर कुछ बताया या समझाया नहीं।

हाँ, इतना जरूर समझा दिया कि अगर अगली बार से हो तो क्या करना है और क्या नहीं। अम्मा पूजा-पाठ में बहुत मानती हैं, तो मुझे याद है कि हर महीने, पीरियड के बाद बेडशीट्स,परदे आदि वो जरूर धोती थीं, मगर अच्छी बात ये थी कि, हमें कहीं जाने-आने और कुछ छूने की मनाही नहीं थी, बाक़ी लोगों की तरह। लेकिन एक चीज़ मुझे हमेशा ही खटकतीं रही कि अम्मा इसे बाकि के लोगों से छिपाने की कोशिश करती। वैसे ढिंढोरा पीटने जरुरी नहीं था मगर बातें तो होनी चाहिए थी।
खैर, मेरे घर में धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। भाई जैसे-जैसे ग्रो किया, ये दूरियां कम होती गयी, डैडी जी भी शुरू से ही काफ़ी सप्पोर्टिव थे, तो चीज़ें बदल गयी मगर अम्मा की अपनी मान्यताएं आज भी कायम है। हाँ तो मैं कहाँ से कहाँ आ गयी।
मुद्दा ये है की अभी भी देश की आधी आबादी, पीरियड्स को छिपाने में, उनके बारे में ओपेनली बात करने से कतराती हैं। जो नहीं पढ़े लिखें हैं, उनका तो एक बार समझ में भी आता है, मगर जो ख़ुद को मॉडर्निटी की मिसाल समझते हैं और फिर वही दकियानूसी सोच की पैरवी करते हैं, तो चिढ मचाती है।

आखिर, पीरियड्स, सेक्स, ब्रेस्ट और बाकि के चीज़ों पर बात क्यों नहीं होनी चाहिए। कब तक हर चीज़ परदे में ढक कर रखी जाये। हक़ आपको सारे चाहिए। मन में सोच कर बैठें हैं कि, आपका दुश्मन मर्द है। सारे हक़ उनसे आपको छीनना है मगर सॉरी आपका दुश्मन मर्द नहीं आपकी अपनी सोच है, वो कुण्ठित ग्रंथि है, जिससे आप बाहर नहीं निकलना चाहती। हाँ, जब भी मौका मिले तो, अपनी हर कुंठा का ठीकरा पुरुषों के मत्थे मढ़ कर आसानी से निकल जाएं।
सच में हम सभी को सोचने की जरुरत है, की आखिर हमें आज़ादी किससे चाहिए, अपनी कुण्ठित सोच से या मर्दों से। जब तक हम अपनी कुंठा को नहीं छोडेंगे हम कहीं नहीं जा रहें। आखिर ये शरीर हमारा है। जितना आप अपने हाथ-पांव को ले कर कम्फ़र्टेबल हैं, उतना ही आपको अपने ब्रेस्ट और पीरियड्स को भी लेकर होना चाहिए।
झूठा फेमनिज़्म और क्रांति का झंडा उठा कर नाचने से कुछ नहीं होने वाला। जो जरुरी बातें हैं उन पर खुल कर बात कीजिये। ज्यादा दूर जाने की जरुरत नहीं है, घर में जो मेड आती है, वही से शुरू कीजिये, उसे समझाइये। उसे बताइये कि कैसे वो अपना और अपनी बेटी का ख्याल रखे।
अगर आपका कोई बेटा है तो, उसे जरूर बातें कीजिये, प्यूबर्टी के बारे में, अपोज़िट सेक्स के बारे में। अपनी कुंठा से निकलिये। कब तक वही दादी,बुआ और माँ के दिए ज्ञान को ढोती फिरेंगी। और जो वही लिए फिड़ना है, तो जो ऐसा कुछ कर रहे उन्हें कम-से-कम जज करना छोड़िये।
बाकि मर्ज़ी आपकी है, जो कुआँ पसंद हो आपको तो समंदर कोई आपके लिए कहाँ से ले आएगा।
(अनु युवा लेखिका हैं। उन सभी मुद्दों पर बेबाकी से कलम चलाती हैं जिन मुद्दों पर समाज में बहस जरूरी है।)