पुस्तक समीक्षा- हरीश शर्मा की कलम से

मानव कौल फिल्म और थियेटर जगत के उभरते हुए चेहरे हैं | देश विदेश में उनके लिखे ‘शक्कर के दाने ‘ की मंचीय प्रस्तुति ने खूब वाहवाही बटोरी | कश्मीर में पैदा हुए और मध्यप्रदेश में पले बढे कौल आज फिल्म जगत में एक बेहतरीन अभिनेता के रूप में जाने जाने लगे हैं |
फिल्म ‘वजीर ‘ में मानव कौल ने अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर के साथ काम किया | लिखने-पढने का शौक उनका जूनून है | इसी कड़ी में 2016 में उनकी पहली कहानी कि किताब ‘ठीक तुम्हारे पीछे " सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में रही |
और अब उनकी दूसरी किताब "प्रेम कबूतर" आ गयी है | अमेजन पर इस किताब के प्री बुकिंग ऑर्डर पर उनके हस्ताक्षर भी उपलब्ध हैं। किताब में कुल 8 कहानियाँ 159 पेजों पर उनके अनुभवों की गहराई बता रही हैं । '
"मैं' शैली में उनकी ये किस्सागोई एकदम जोड़ लेती है। शीर्षक कहानी 'प्रेम कबूतर', शक्कर के पांच दाने, और नकल नवीस पढ़ी तो बस पढ़ता ही गया । किताब छोड़ने का मन नहीं करता ।
ऐसा लगता है जैसे वो आपको अपने साथ एक कशमकश से भरी तालाश के लिए साथ ले चलते हैं और आप अपने आप को भूलकर उनकी कहानियों का ही एक पात्र हो जाते हैं | ये एक ऐसा सफ़र है जिसमें बोरियत और ऊब जैसा कुछ भी नहीं, बस गूंगे के गुड़ का स्वाद है जो आप जितना महसूस कर सकते है उतना कह नहीं पाते | भाषा की सहजता और भावनाओं के दृश्य कितनी ही दफा जिंदगी के फ्लैश बैक में ले जाते रहे ।
मानव की कहानिया पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे वो अपने आप से हमेशा एक संवाद करते हैं, जिसमें एक तालाश है जो हर मध्य वर्गीय कि नियति है और कभी ख़त्म नहीं होती | उनके लेखन में जो आत्म संवाद बार बार कौंधता है उसमें वे माँ ,प्रेमिका और अपने आप को सदा खोजते रहते हैं।
पिता के बारे में उनकी कहानी प्रेम कबूतर का एक संवाद देखिये , “ कोई तो होना चाहिए जिससे पिता की शिकायत की जा सके ” शायद इसी वजह से पिता की जगह वो बाप शब्द का प्रयोग इस प्रकार करते हैं, जैसे वो कोई अजनबी और पराया आदमी हो |
“नक़ल नवीस” कहानी में पात्र की पिंडलिया दुखती हैं पर दर्द दिमाग में होता है और वो अपने बनाये हर चित्र में इस दर्द के पीलेपन से अपना पीछा नही छुड़ा पाता | उसका कुछ खो गया है और वो इस खोने वाली चीज को महसूस करता हुआ न कहकर भी पाठक को बता जाता है पर खुद नहीं समझ पाता | पाठक के दिमाग में उस दर्द और पीड़ा की टीस का पहुंचना मानव कौल के लेखन की सफलता और परिपक्वता को सिद्ध करता है |
शीर्षक कहानी ‘प्रेम कबूतर में वो लिखते है , “अपने किसी दोस्त को किसी दूसरे के साथ बहुत खुश देखते हैं तो हम तुरंत एक सपना बटोर लेते हैं कि मै भी एक दिन किसी के साथ इतना ही खुश रहूँगा | स सपने के साथ ही एक खाली जगह हमारी बगल में बन जाती है | जब तक वह जगह खाली रहती है , कुछ खलता रहता है | किसी ख़ास चेहरे को देखकर एक टीस उठती है। ”
मानव कौल इस किताब की भूमिका में भी कहते हैं कि उनके पास खाली समय और एकांत हमेशा से रहा, जिसमें उन्हें किसी चीज का इन्तेजार उसी तरह रहता था जैसे किसी किसान को अपनी सारी मेहनत के बाद बारिश का ,बीज के फूटने का और फसल के लहलहाने का इन्तेजार रहता है |
उनकी कहानियों में माँ की मृत्यु और उसके दाह संस्कार की स्मृतियाँ परछाई की तरह उनके साथ रहती हैं | अपनी प्रेमिका की पीठ की हड्डी पर हाथ फेरते हुए उन्हें माँ के दाह संस्कार के बाद राख से उनकी हड्डियों को बीनते हुए उसका अहसास याद आता है |
मानव खुद लिखते हैं “ मैं वो नही हूँ जिसने ये कहानियां लिखी हैं | मैं तो बहुत पहले गुजर चुका था |”
कुल मिलाकर ये मानव कौल की ये दूसरी किताब भी आपको उतनी ही पसंद आएगी जितना प्यार आप मानव की पहली किताब पर बरसा चुके हैं। बल्कि इस किताब की कई कहानियां तो उससे भी उम्दा हैं। मानव को बधाई इस किताब के बहाने ये इस अहसास को पुख्ता करने के लिए कि हर आदमी के भीतर एक प्रेम कबूतर होता है। हिंद युग्म प्रकाशन और उसके संपादक शैलेश भारतवासी को भी बधाई कि वे लगातार खूबसूरत किताबें पाठकों के हिस्से लेकर आ रहे हैं।